इंटर्नशिप का अनुभव

इंटर्नशिप का अनुभव शब्दों में इतना बयां तो नहीं कर पाऊँगा, लेकिन यहां जो बातें अंतरात्मा व मन में महसूस की गई वह थोड़ी बहुत व्यक्त कर रहा हूं-

फरवरी का अंतिम सप्ताह चल रहा था इधर बोर्ड परीक्षाएं शुरू होने वाली थी और मेरे भी इंटर्नशिप के 30-35 दिन और बाकी बचे हुवे थे।

सबसे पहले तो धन्यवाद करूंगा संस्था प्रधान , समस्त वरिष्ठ अध्यापकों , स्टाफ साथी व सभी विद्यार्थियों का जिनकी बदौलत ही पूरे विद्यालय परिवार में इतना सहयोग मिला साथ ही इस इंटर्नशिप कार्यक्रम से बहुत कुछ सीखने का इतना शानदार वातावरण दिया ।

अक्सर लोग कहते हैं की इंटर्नशिप में स्कूल जाकर क्या करोगे, कोई तैयारी वैयारी करो क्यों फालतू टाइम खराब कर रहे हो .. यह बात घरवाले, पास-पड़ोस के लोग व यहां तक की कोई शिक्षक होते हुए भी यह कहता है। लेकिन मेरा केवल यह था कि अपना जो भी धर्म (कर्म) है वह करते रहो वो कहते हैं न की “लोगों का क्या उनका तो काम हैं कहना” बाकी इन बातों पर इतना ध्यान दिया नहीं बस नजरंदाज करते रहें।

जब पहली बार विद्यालय गया था तब किसी शिक्षक साथी ने भी यही कहा था कि क्या करोगे आ कर यहाँ तो स्कूल में स्टाफ भी फुल बाकी और इंटर्नशिप वाला भी कोई नहीं आता है क्या करना हैं.. फिर भी अपना यही था कि अपन अपना शत प्रतिशत देंगे अपना जो भी कर्तव्य है उसके प्रति ईमानदारी से काम करना हैं ।

जरूर कभी-कभी लगता था कि बाकी जो इंटर्नशिप वाले नहीं आ रहे हैं और वे कहीं तैयारी कर रहे होंगे हाँ मानते हैं कि तैयारी कर रहे हैं जो वह कहीं ना कहीं हमसे आगे चल रहे हैं कहीं न कहीं आगे होंगे । और वह स्कूल नहीं आएंगे तो भी इंटर्नशिप कर लेंगे और हम आकर भी क्या कुछ कर रहे हैं लगता हैं की यह तो बाद में कर लेंगे लेकिन फिर लगता था कि वक्त और उम्र वापस नहीं आया करती जो जिस समय चल रहा हैं उसे वक्त दु और वो करता रहूँ ।

और फिर यह भी लगता हैं कि शिक्षा का क्षेत्र चुना है और हम अभी भी ईमानदारी से काम नहीं करेंगे फिर तो रहा ही कुछ नहीं, तो बस इसलिए नियमित विद्यालय रहा और जितना मेरे से हो सका बिना स्वार्थ के ईमानदारी , जबाबदेही और जिम्मेदारी के साथ अपना काम कर्तव्यनिष्ट व आदर्शपूर्ण करता रहा ।

बातें जो बच्चें कह गये…

फरवरी माह का अंतिम सप्ताह था अब 10th कक्षा वाले भी जाने वाले ही थे तब सोचा की दसवीं कक्षा के विद्यार्थी वैसे भी जाने वाले हैं तो क्यों ना अभी ही सभी कक्षाओं के बच्चों से फीडबैक ले लिया जाए इसी बात पर दो- तीन दिन फीडबैक रिपोर्ट ली ।

वास्तव में उनकी लिखित फीडबैक से ज्यादा जो बातें बोली गई कहीं ना कहीं लगता भी था कि भावनात्मक रूप [ EMOTIONALLY ] में सही भी है और ऐसा भी लगा की आ कर वास्तव में कुछ तो पाया है ।

उस समय उनकी बातों की इतने जवाब तो मेरे पास नहीं थे बस सुनता रहा कोई आगे की विनती कर रहा हैं तो कोई कहता कि सर आप स्कूल आते हो तो हम बहुत खुश होते हैं नहीं तो हमारा स्कूल में मन नहीं लगता है तो कोई कहता है कि सर आप हमारे लिए वरदान से साबित हुए ( मुझे ऐसा लगा “सर ने हमारे doubts clear करवाए” शायद इसी अर्थ में ही था ) कोई बोल रहा है कि सर आप वापस जरूर आना तो कोई कहता है कि यदि आप वापस नहीं आए तो हम कभी भी स्कूल में भी नहीं घुसने देंगे । वाह यार

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